श्रावण मास में आखिर शिव की उपासना ही क्यों की जाती है?

श्रावण मास में आखिर शिव की उपासना ही क्यों की जाती है?

श्रावण मास (सावन) हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्ष का पांचवां महीना होता है और इसे भगवान शिव को समर्पित सबसे पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। इस माह में विशेष रूप से शिव की उपासना क्यों की जाती है, इसके पीछे कई धार्मिक, पौराणिक और आध्यात्मिक कारण हैं:

🌿 1. समुद्र मंथन और विषपान की कथा:

पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रावण मास में ही देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन किया था। इस मंथन से जब कालकूट विष निकला तो ब्रह्मांड की रक्षा हेतु भगवान शिव ने वह विष ग्रहण कर लिया। यह विष उनके कंठ में अटक गया जिससे उनका गला नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए।

इस महाविष के प्रभाव को शांत करने के लिए देवताओं ने शिव पर गंगाजल चढ़ाया। तभी से श्रावण में शिवलिंग पर जल, बेलपत्र, दूध, दही, शहद आदि अर्पित करने की परंपरा शुरू हुई।

🌿 2. वर्षा ऋतु और शीतलता की आवश्यकता:

 

श्रावण मास वर्षा ऋतु का होता है, जब प्रकृति में अधिक नमी और वात-पीत्त का असंतुलन होता है। ऐसी मान्यता है कि शिव की आराधना से मन और शरीर में संतुलन बनता है और मानसिक शांति मिलती है। शिव का शीतल रूप (गंगाधर, चंद्रशेखर) इस संतुलन का प्रतीक है।

🌿 3. सोमवार व्रत की महिमा:

श्रावण मास के सोमवार विशेष रूप से शिव को समर्पित माने जाते हैं। श्रद्धालु इस दिन व्रत रखते हैं और शिवालय में जाकर जलाभिषेक करते हैं। ऐसी मान्यता है कि सावन सोमवार का व्रत रखने से विशेष फल की प्राप्ति होती है — जैसे:

विवाह में आ रही बाधा दूर होती है

मनचाहा जीवनसाथी मिलता है

घर में सुख-शांति और संतान सुख की प्राप्ति होती है

🌿 4. प्रकृति और आत्मा का संबंध:

श्रावण मास में चारों ओर हरियाली, शुद्ध वातावरण और वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा होती है। शिव को प्रकृति का अधिपति माना जाता है। शिव की उपासना करके मनुष्य स्वयं को प्रकृति और आत्मा से जोड़ने का प्रयास करता है।

🌿 5. आध्यात्मिक साधना का उत्तम काल:

श्रावण मास को तप, ध्यान, जप और योग साधना के लिए उत्तम काल माना गया है। इस महीने में शिव के पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय” का जाप अत्यधिक फलदायी होता है।

निष्कर्ष:

श्रावण मास शिवभक्ति, साधना और आत्मशुद्धि का अद्भुत संगम है। इस महीने में शिव की आराधना केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा है — स्वयं को भीतर से शुद्ध करने की।